देश की सर्वोच्च अदालत ने हाल ही में मध्यप्रदेश के वन मंत्री विजय शाह को उस वक्त तगड़ा झटका दिया, जब उन्होंने सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी कर्नल कुरैशी पर की गई कथित विवादित और आपत्तिजनक टिप्पणी के मामले में राहत की गुहार लगाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ उनकी याचिका खारिज की, बल्कि कड़ी फटकार लगाते हुए यह स्पष्ट किया कि सत्ता में बैठे लोगों को अपने शब्दों और आचरण के प्रति और अधिक जिम्मेदार होना चाहिए।
यह घटना उस व्यापक समस्या की ओर इशारा करती है, जहाँ सत्ताधारी अक्सर राजनीतिक लाभ या प्रभाव प्रदर्शन के उद्देश्य से शब्दों की मर्यादा लांघते हैं। विशेष रूप से, जब ऐसी टिप्पणियाँ उन लोगों के विरुद्ध होती हैं जिन्होंने देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित किया हो – जैसे कि पूर्व सैन्य अधिकारी – तब यह न सिर्फ व्यक्तिगत अपमान है, बल्कि पूरे सैन्य समुदाय का भी अनादर है।
सुप्रीम कोर्ट की इस कठोर प्रतिक्रिया से एक स्पष्ट संदेश गया है: लोकतंत्र में पद की गरिमा के साथ जिम्मेदारी भी आती है। मंत्री के स्तर पर बैठा कोई व्यक्ति यदि सार्वजनिक मंच पर अनुचित भाषा का प्रयोग करता है, तो वह केवल व्यक्तिगत असंवेदनशीलता नहीं, बल्कि संस्थागत असंवेदनशीलता को दर्शाता है।
इस निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए, क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को रेखांकित करता है। यह उन सभी लोगों के लिए एक चेतावनी भी है, जो सत्ता के मद में लोक मर्यादाओं को भुला बैठते हैं।
सवाल यह भी उठता है कि क्या राजनीतिक दलों के पास अपने नेताओं की ज़बान पर नियंत्रण रखने की कोई ठोस नीति है? और यदि नहीं, तो क्या केवल अदालती फटकार ही वह माध्यम रह गया है जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा हो सके?
इस पूरे प्रकरण से सरकार को सीख लेनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके प्रतिनिधि संवेदनशील मुद्दों पर सोच-समझकर बोलें, खासकर जब वह बात देश के सम्मानित पूर्व सैनिकों की हो। साथ ही, मंत्री विजय शाह को भी आगे आकर अपनी टिप्पणी के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए — यही एक सच्चे जनप्रतिनिधि का व्यवहार होगा।
🖋️ "सत्ता के शब्द यदि संतुलन खो दें, तो लोकतंत्र के स्तंभ डगमगाने लगते हैं।" अंकित श्रीवास्तव विचारक