भ्रष्टाचार—एक ऐसा शब्द, जो भारत जैसे विकासशील राष्ट्र की प्रगति की राह में सबसे बड़ी बाधा बन चुका है। हर सरकार इसके खात्मे का दावा करती है, हर चुनाव में यह मुद्दा बनता है, और हर आम नागरिक इससे त्रस्त है। लेकिन सवाल अब भी वही है—आख़िर कब होगा भ्रष्टाचार मुक्त भारत?
आजादी के 75 साल से भी ज़्यादा समय बीत गया, लेकिन अब भी सरकारी दफ्तरों से लेकर पंचायत कार्यालयों तक, ठेकों से लेकर तबादलों तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक—हर जगह भ्रष्टाचार की गंध मिलती है। यह अब सिर्फ घोटालों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यवस्था के हर कोने में घुल चुका है।
हर आम नागरिक को कभी न कभी रिश्वत, सिफ़ारिश या अनुचित मांगों का सामना करना पड़ा है। एक जन्म प्रमाणपत्र बनवाने से लेकर जमीन की रजिस्ट्री तक, कोई भी प्रक्रिया बिना 'पैसे' या 'पहचान' के आसान नहीं मानी जाती।
यह केवल सिस्टम की विफलता नहीं, समाज की चुप्पी भी है। हममें से अधिकांश लोग या तो इस भ्रष्टाचार के आगे झुक जाते हैं या फिर मौन स्वीकृति दे देते हैं। जब तक हम इसे सामान्य मानते रहेंगे, तब तक बदलाव संभव नहीं।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़े कानून तो हैं, लेकिन उनका प्रभाव तभी होता है जब इच्छाशक्ति प्रबल हो। ईमानदार अधिकारियों को संरक्षण मिलना चाहिए, भ्रष्टाचारियों को सज़ा और समाज में शर्म मिलनी चाहिए। इसके साथ-साथ नागरिकों को भी जवाबदेही निभानी होगी—चुनाव में ईमानदार उम्मीदवार को चुनना, गलत को खुलकर चुनौती देना, और हर स्तर पर पारदर्शिता की मांग करना।
भ्रष्टाचार मुक्त भारत कोई असंभव सपना नहीं, लेकिन इसके लिए केवल सरकार नहीं, समाज और नागरिकों को भी खुद को बदलना होगा।
वक़्त आ गया है कि हम केवल ‘भारत महान’ के नारे न दें, बल्कि एक ईमानदार, जवाबदेह और पारदर्शी भारत की बुनियाद भी रखें।
क्योंकि अगर अब भी नहीं जागे, तो भ्रष्टाचार हमें निगल जाएगा। अंकित श्रीवास्तव विचारक