हम न्याय की उम्मीद किससे करें?”—यह सवाल उस याचिकाकर्ता प्रहलाद साहू का है, जिसने एक भ्रष्ट अधिकारी के खिलाफ आवाज उठाई, पर कोर्ट में खुद को अकेला पाया।
प्रहलाद साहू की ओर से अदालत में याचिका लगाई गई थी, जिसमें डॉ. संजय मिश्रा को व्यक्तिगत हैसियत में शामिल किया गया था। मिश्रा पर कई संगीन आरोप थे—फर्जी दस्तावेज, बहुविवाह और आय से अधिक संपत्ति अर्जन। पर कोर्ट में उनकी ओर से कोई निजी वकील नहीं, बल्कि खुद सरकार के उपमहाधिवक्ता स्वप्निल गांगुली खड़े हुए।
क्या यह न्याय है? जब सरकार का वकील ही उस भ्रष्ट अफसर को बचाने उतर जाए, जिसके खिलाफ विभागीय जांच जारी है?
जनता को गुमराह करने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि कोर्ट में मिश्रा को 'पीड़ित' बताया गया और याचिकाकर्ता को 'दुर्भावनापूर्ण' कहा गया।
लोकायुक्त के वकील की चुप्पी भी इसी 'प्रणालीगत मौन' का हिस्सा लगती है। क्या हम उस दौर में पहुंच चुके हैं, जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाला ही 'अभियुक्त' बन जाएगा और भ्रष्ट लोग 'सरकार संरक्षित' होंगे?
