"देश सर्वोपरि, पार्टी बाद में" — शशि थरूर की खरी बात ने खोले सियासत के कई पर्दे

नई दिल्ली। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और तिरुवनंतपुरम से सांसद डॉ. शशि थरूर ने एक ऐसा वक्तव्य दिया है, जो भारतीय राजनीति के मौजूदा मिज़ाज को कटघरे में खड़ा करता है। कोच्चि में आयोजित ‘राष्ट्रीय विकास, शांति और सद्भाव’ विषयक एक संगोष्ठी में थरूर ने कहा — “राजनीति में दल महत्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन देश सबसे ऊपर होना चाहिए। हमारी पहली वफादारी राष्ट्र के प्रति होनी चाहिए, न कि केवल उस पार्टी के लिए जिससे हम जुड़े हैं।”

यह बयान तब आया है जब राजनीति में व्यक्तिगत निष्ठाएं अक्सर पार्टी की लाइन से परिभाषित होती हैं, और जब कोई इससे अलग सोचता है तो उस पर शक और तंज की बौछार शुरू हो जाती है। थरूर के इन शब्दों को उनकी पार्टी के भीतर ही कुछ हलकों ने नाराजगी के साथ देखा है, लेकिन इसे व्यापक लोकतांत्रिक विमर्श की दृष्टि से पढ़ा जाना चाहिए।

राजनीति का उद्देश्य क्या है — सत्ता या सेवा?

थरूर ने अपने भाषण में यह स्पष्ट किया कि राजनीतिक दल राष्ट्र सेवा के लिए एक माध्यम भर हैं। उन्होंने कहा, “अगर देश ही न बचे, अगर उसकी अखंडता और सुरक्षा खतरे में हो, तो फिर किसी भी पार्टी का वजूद बेमानी हो जाएगा। राष्ट्र की एकता और स्थायित्व ही राजनीति की पहली शर्त होनी चाहिए।”

उनकी यह बात, आज की उस राजनीतिक हकीकत पर चोट करती है जहाँ पार्टी हितों को राष्ट्रहित से ऊपर रखा जाता है।

जब समर्थन को गद्दारी कहा जाने लगे

थरूर ने कटाक्ष करते हुए कहा — “जब आप देश के हित में विपक्षी विचारों से सहमत होते हैं, या सरकार के किसी कदम की प्रशंसा करते हैं, तो लोग इसे दल-बदल या गद्दारी का रूप देने लगते हैं। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण मानसिकता है।”

यह टिप्पणी उस मानसिक जड़ता की ओर इशारा करती है, जहाँ राजनीति संवाद नहीं, बल्कि संकीर्ण निष्ठाओं में बंध गई है। थरूर ने यही मानसिकता तोड़ी है — सार्वजनिक मंच पर राष्ट्र को प्राथमिकता देने की बात कहकर।

हालिया विवाद की पृष्ठभूमि: मोदी सरकार की विदेश नीति की प्रशंसा

थरूर हाल ही में चर्चा में आए जब उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा चलाए गए ऑपरेशन सिंदूर की सराहना की। उन्होंने भारतीय सेना और विदेश मंत्रालय की उस कार्यशैली की तारीफ की जिससे संकट में फंसे भारतीयों को विदेशों से सुरक्षित लाया गया। उनके इस बयान के बाद कांग्रेस के भीतर कुछ असहज प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं, हालांकि थरूर ने अपने रुख पर कोई सफाई नहीं दी — बल्कि उसे स्पष्ट किया।

उनका यह रुख बताता है कि वे राजनीतिक परिपक्वता और राष्ट्रहित में ईमानदारी से खड़े रहना बेहतर समझते हैं, भले ही उसके लिए आलोचना झेलनी पड़े।

संकट के समय राजनीति नहीं, राष्ट्रीय एकता की ज़रूरत

शशि थरूर ने अपने संबोधन में इस बात पर बल दिया कि जब देश संकट में हो, तब दलगत विभाजन नहीं, बल्कि एकजुटता की ज़रूरत होती है। उन्होंने कहा, “चुनाव में प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए, पर जब बात देश की अखंडता, सुरक्षा और सम्मान की हो, तो सभी दलों को एक साथ खड़ा होना चाहिए। यह कोई सिद्धांत नहीं, बल्कि ज़रूरी कर्तव्य है।”

क्या थरूर की बात पार्टी से ऊपर सोचने की शुरुआत है?

शशि थरूर के इस बयान को केवल एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए एक मूल्यपरक हस्तक्षेप के रूप में देखा जाना चाहिए। यह राजनीति में उस जरूरी स्पेस को मांगता है जहाँ विचारधाराएं हों, पर संकीर्णता न हो; जहाँ मतभेद हों, पर देशहित सर्वोपरि रहे।

उनके शब्द आज की राजनीति को एक ज़रूरी आईना दिखाते हैं। सवाल सिर्फ इतना है — क्या बाकी राजनीतिक नेतृत्व इस आईने में खुद को देखने के लिए तैयार है?



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