पेरिस समझौते के दस साल: दुनिया ने दिशा पाई, अब भारत की बारी और बड़ी चुनौती


 2015 की दिसंबर की वो ठंडी शाम याद है जब पेरिस में दुनिया एक साथ आई थी? 194 देशों ने पहली बार एक साझा वादा किया था — धरती को 1.5°C की सीमा में रोकने का. वो कोई साधारण समझौता नहीं था; वो भविष्य की उम्मीद पर लिखा गया एक दस्तावेज़ था.

अब उस ऐतिहासिक पेरिस समझौते के दस साल पूरे हो चुके हैं, और इन दस सालों की कहानी उम्मीद, हिचक और अधूरे इरादों से भरी रही है.

पेरिस के बाद दुनिया ने जिस रफ़्तार से जलवायु नीतियों को अपनाया, उसे समझने के लिए Deep Decarbonization Pathways (DDP) Initiative की नई रिपोर्ट “A Decade of National Climate Action: Stocktake and the Road Ahead” सामने आई है. रिपोर्ट बताती है कि पेरिस समझौते ने देशों के सोचने और काम करने के तरीक़े बदल दिए. अब जलवायु नीतियाँ केवल पर्यावरण तक सीमित नहीं रहीं—वो आर्थिक योजना, सामाजिक न्याय और तकनीकी नीति का हिस्सा बन गई हैं.

21 देशों के विश्लेषण से जो तस्वीर सामने आई, उसमें एक तरफ़ ठोस प्रगति है, तो दूसरी ओर वे कमियाँ हैं जो रफ़्तार को रोक रही हैं. नीतियों में अब वैज्ञानिक प्रमाण और दीर्घकालिक दृष्टि को अधिक महत्व दिया जा रहा है. देशों ने जलवायु एजेंडे को केवल कागज़ पर नहीं रहने देने के लिए नए संस्थान और समन्वय तंत्र बनाए हैं. कई सेक्टरों में लो-कार्बन तकनीकें, जैसे रिन्यूएबल एनर्जी और ऊर्जा दक्षता, ज़मीन पर उतर चुकी हैं.

फिर भी चुनौतियाँ बनी हुई हैं. दीर्घकालिक रणनीतियाँ और तात्कालिक नीतियाँ अक्सर एक-दूसरे से जुड़ नहीं पातीं. मंत्रालयों के बीच तालमेल कमजोर है और सामाजिक व औद्योगिक दबावों के कारण कई देशों की जलवायु महत्वाकांक्षा आधे रास्ते में अटक जाती है. DDP के निदेशक हेनरी वेस्मैन के शब्दों में, “पेरिस समझौते ने कार्रवाई की बुनियाद रख दी है, लेकिन अगले दस साल परिणाम तय करेंगे—क्योंकि अब बात केवल महत्वाकांक्षा की नहीं, अमल की है.”

भारत इस वैश्विक कहानी का केंद्रीय पात्र है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के कारण भारत पर दोहरी ज़िम्मेदारी है—विकास को बनाए रखना और डिकार्बनाइजेशन की दिशा में आगे बढ़ना. DDP India रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने पिछले दशक में ऊर्जा, परिवहन और उद्योग जैसे प्रमुख क्षेत्रों में नीति और संस्थागत ढांचे को मज़बूत किया है, हालांकि बदलाव अब भी शुरुआती दौर में है.

भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा में उल्लेखनीय प्रगति की है. देश की स्वच्छ ऊर्जा क्षमता 200 गीगावॉट से अधिक हो चुकी है, और 2030 तक 500 गीगावॉट का लक्ष्य रखा गया है. 2025 तक भारत की बिजली का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा स्वच्छ स्रोतों से आने लगा है. इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने के लिए FAME जैसी योजनाओं ने ईवी बाजार को गति दी है, हालांकि चार्जिंग नेटवर्क और बैटरी आपूर्ति अब भी चुनौती बने हुए हैं. उद्योगों में ऊर्जा दक्षता सुधारने के प्रयास जारी हैं, विशेषकर सीमेंट, इस्पात और रासायनिक क्षेत्रों में. इसके साथ ही National Green Hydrogen Mission और National Adaptation Fund जैसे कदमों ने वित्तीय और नीतिगत आधार को मज़बूत किया है.

लेकिन भारत की असली परीक्षा अब शुरू होती है. DDP विश्लेषण बताता है कि भारत को आने वाले दशक में तीन स्तरों पर बड़ी लड़ाई लड़नी होगी—ऊर्जा सुरक्षा और न्यायपूर्ण संक्रमण, औद्योगिक प्रतिस्पर्धा और जलवायु वित्त के साथ राज्य-स्तरीय क्रियान्वयन. कोयले पर निर्भर इलाकों के लिए वैकल्पिक आजीविका बनाना, उद्योगों को नेट-ज़ीरो लक्ष्यों के अनुरूप बनाना और राज्यों में नीतियों के प्रभावी अमल को सुनिश्चित करना प्रमुख चुनौतियाँ हैं. रिपोर्ट यह भी कहती है कि भारत ने संस्थागत ढांचा तो तैयार कर लिया है, पर केंद्र और राज्यों के बीच नीति समन्वय तथा डेटा-आधारित निगरानी अब भी कमजोर कड़ी बनी हुई है.

पेरिस समझौते के 10 साल हमें यह सिखाते हैं कि जलवायु कार्रवाई कोई नीति नहीं, बल्कि एक सतत प्रक्रिया है. यह केवल सरकारों का नहीं, बल्कि समाज, उद्योग और नागरिकों — सबका साझा दायित्व है. DDP रिपोर्ट के अनुसार, अब देशों को विज्ञान-आधारित और समावेशी नीति निर्माण, दीर्घकालिक लक्ष्यों से जुड़ी अल्पकालिक योजनाएँ और सहयोग-आधारित अंतरराष्ट्रीय ढांचे पर ध्यान देना होगा.

भारत के लिए रास्ता साफ़ भी है और मुश्किल भी. देश या तो “विकास बनाम जलवायु” की बहस में उलझा रह सकता है, या फिर जलवायु कार्रवाई को विकास की मुख्यधारा बना सकता है. आने वाले दस साल तय करेंगे कि भारत केवल एक “प्रतिबद्ध देश” रहेगा या “प्रेरक शक्ति” बनेगा. क्योंकि जैसा कि रिपोर्ट कहती है — “अगला दशक वह होगा जिसमें महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि कार्रवाई ही इतिहास लिखेगी.”

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