बृजभूषण शरण सिंह को आज पटियाला हाउस कोर्ट से बड़ी राहत मिली। अदालत ने नाबालिग पहलवान द्वारा लगाए गए आरोपों से उन्हें दोषमुक्त करार दिया। पीड़िता ने अदालत को बताया कि आरोप भावनात्मक दबाव और भ्रम के चलते लगाए गए थे। उनके पिता ने भी अपनी शिकायत को वापस लेते हुए स्वीकार किया कि वो उस वक्त मानसिक रूप से व्यथित थे।
इस फैसले ने एक बार फिर न्याय प्रणाली में "बयान बदलने" की प्रवृत्ति पर बहस छेड़ दी है। क्या भावनात्मक कारणों से लगाए गए आरोपों को इस तरह समाप्त करना सही है? या फिर यह न्यायिक प्रक्रिया में कमजोर कड़ी बनता जा रहा है?
हालांकि कानूनी रूप से फैसला अंतिम है, लेकिन सामाजिक नजरिए से यह प्रश्न छोड़ गया है—सच क्या है और कौन साबित करेगा?