वो सवाल जो कुछ महीने पहले गूंजते थे, अब गूंज नहीं रहे – दबा दिए गए हैं।
वो लौ जो शिक्षा की उम्मीद में टिमटिमा रही थी, अब धुएं में बदल चुकी है।
कभी अनुशासन की मिसाल रहा अंजुमन इस्लामिक स्कूल, आज डर और राजनीति का पर्याय बन गया है।
जहाँ कभी शिक्षा का दीप जलता था, वहाँ अब ‘मीडिया प्रतिबंधित है’ जैसे बोर्ड टांगे जा रहे हैं।
ये डर किसका है?
अगर सब कुछ ठीक है, तो फिर कैमरों से घबराहट क्यों?
कक्षाओं में सन्नाटा, बाहर गुटबाज़ी का शोर
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, अब स्कूल का समय घटाकर केवल 12:30 से 4:00 तक कर दिया गया है।
यानी कुल साढ़े तीन घंटे।
जिसमें प्रार्थना, अंतराल और मोबाइल पर नज़र रखने में ही आधा समय निकल जाता है।
कक्षाओं में शिक्षक नहीं, मोबाइल स्क्रीन हैं।
बच्चे पढ़ाई की बजाय स्टेटस अपडेट देख रहे हैं।
कभी जो स्कूल अनुशासन का मॉडल हुआ करता था, आज वहाँ केवल नोटिस चिपके मिलते हैं ..... पालन करने वाला कोई नहीं।
प्राचार्य की कुर्सी खाली, नेतृत्व बेदम
प्रशासनिक शिथिलता का आलम यह है कि स्कूल को स्थायी प्राचार्य तक नहीं मिल पा रहा।
शबीना अंसारी, जिन्हें यह जिम्मेदारी दी जा रही थी, उन्होंने दो टूक मना कर दिया।
उनका स्पष्ट कथन – "एक साल की बदनामी के लिए नहीं आ सकती। स्थायित्व दीजिए, सम्मान दीजिए, तभी बात करें।"
जब योग्य शिक्षक इस स्कूल से कतराने लगें, तो समझिए कि अंदर हालात कितने विषाक्त हो चुके हैं।
गुटबाज़ी की स्याह परतें: सूत्रों से खुलासे
सूत्रों का दावा है कि प्रबंधन में गुटबाज़ी चरम पर है।
कुछ नाम बार-बार चर्चा में आते हैं .....
प्रतिभा पांडे, कविता सतपाल, उमा क्षत्रिय, श्वेता नामदेव, रीता कुशवाहा।
ये वही चेहरे हैं जो हर उस प्राचार्य के सामने दीवार बन गए, जो शिक्षा की बात करता था।
इन पर सीधे आरोप नहीं लगाए जा रहे, पर संस्थान के भीतर फैली फूट और राजनीति इन्हें कटघरे में खड़ा करती है।
सबसे बड़ी चिंता: बच्चे और उनका भविष्य
जब दो वरिष्ठ समूह आपस में टकरा रहे हों, तब सबसे अधिक चोट उन नन्हे कंधों पर पड़ती है, जो किताबें उठाने के लिए तैयार थे।
कक्षा में शिक्षक की बजाय डर बैठा है।
और छोटी-छोटी बातों पर बच्चों पर छड़ी चलाना ..... यह तो न सिर्फ नैतिक अपराध है, बल्कि कानूनी उल्लंघन भी।
मोहम्मद नईम शेख, एक चिंतित अभिभावक कहते हैं .....
"हमें अपने बच्चों को पढ़ाना है, राजनीति नहीं सिखानी।"
उन्होंने यह बात तब कही, जब उन्हें बताया गया कि अंजुमन में एडमिशन माफ है।
फिर भी वो पीछे हट गए .....
क्योंकि भरोसा टूट चुका है।
क्या अब चुप रहा जाए? या सवाल उठाए जाएं?
अब यह सिर्फ एक स्कूल की बात नहीं रह गई।
यह एक समाज, एक कौम की शैक्षणिक विरासत की बात है।
क्या इस ऐतिहासिक संस्थान को राजनीति और गुटबाज़ी की भेंट चढ़ने दिया जाए?
यह लेख किसी से रंजिश नहीं, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है।
क्योंकि जब स्कूल में सवाल पूछना जुर्म बन जाए,
तो चुप रहना पूरे समाज के लिए अपराध बन जाता है।
अगली कड़ी में...
क्या वक्फ बोर्ड इस पर चुप्पी तोड़ेगा?
क्या शिक्षा के नाम पर हो रही राजनीति को रोका जा सकेगा?
और क्या कभी कोई ऐसा प्राचार्य मिलेगा, जो टूटे ढांचे को संवार सके?
सवाल पूछते रहिए, क्योंकि अंजुमन की कहानी अभी अधूरी है