छिंदवाड़ा में 23 बच्चों की मौतें किसी जनसंहार से कम नहीं, हाईकोर्ट स्वतः संज्ञान ले सकता, कलेक्टर के 150 कॉल वाले बयान ने सवाल खड़े किए!


 जबलपुर. मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा और बैतूल जिलों में सितंबर और अक्टूबर 2023 के बीच 23 से अधिक बच्चों की मौतों ने पूरे राज्य को हिला कर रख दिया. इन सभी  बच्चों की मौतें किसी जनसंहार से कम नहीं हैं. 150 कॉल वाले बयान ने स्पष्ट किया कि प्रशासनिक सक्रियता और वास्तविक परिणामों के बीच कितना बड़ा अंतर था. यह मामला केवल जनहित का विषय नहीं है, बल्कि कानून, प्रशासन और न्यायिक दृष्टिकोण से उच्च सतर्कता और त्वरित जांच की आवश्यकता को उजागर करता है.यह केवल दवा की त्रासदी नहीं है, बल्कि प्रशासनिक जवाबदेही  प्रक्रिया की गंभीर खामियों को उजागर करने वाली घटना है. स्थानीय मीडिया रिपोर्टों और SIT की प्रारंभिक जांच के अनुसार, बच्चों की मौतें जहरीली कफ सिरप ‘कोल्ड्रिफ’ पीने के कारण हुईं.

 नागरिक संगठनों तथा विशेषज्ञों का कहना है कि छिंदवाड़ा में 23 बच्चों की मौत के संदर्भ में BNS धारा 105 (गैर इरादतन हत्या) के तहत तत्कालीन कलेक्टर शीलेंद्र सिंह, SDM और संबंधित स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों पर मामला दर्ज होना चाहिए. कलेक्टर के पास बच्चों की मौतों की प्रारंभिक जानकारी आने के बाद भी 150 कॉल्स और दबाव के बावजूद उन्होंने सिरप के स्टॉक जब्त करने, नमूने जांच के लिए भेजने और जनहित चेतावनी जारी करने में 15 दिन तक देरी की, जबकि उनके कर्तव्य के तहत यह कदम तुरंत उठाना अनिवार्य था. SDM ने प्रशासनिक समन्वय और स्वास्थ्य विभाग के निर्देशों के पालन में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, जबकि स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों ने प्रारंभिक चेतावनी देने के बाद भी फॉलो-अप और प्रशासनिक सहयोग में कमी दिखाई. इस देरी और लापरवाही ने दर्जनों बच्चों की जानें लीं, और यही कारण है कि SIT और उच्च न्यायालय की गहन जांच के तहत इन अधिकारियों के खिलाफ गैर इरादतन हत्या के प्रावधानों के अनुसार मामला दर्ज होना आवश्यक है.  स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों और प्रशासनिक सूत्रों के अनुसार, सातवीं मौत के बाद जिला प्रशासन और तत्कालीन कलेक्टर शीलेंद्र सिंह तथा SDM को इस त्रासदी की जानकारी थी. इसके बावजूद, सिरप पर प्रतिबंध लगाने में 15 दिन का समय लग गया, और इस दौरान कई बच्चे दम तोड़ चुके थे. विशेषज्ञों और जनहित संगठनों का कहना है कि इस देरी ने बच्चों की मौतों की संख्या बढ़ा दी.

  मामले की गंभीरता तब उजागर हुई जब बैतूल और छिंदवाड़ा के ग्रामीण क्षेत्रों से एक ही सप्ताह में बच्चों की मौत की खबरें सामने आने लगीं, जिनके सभी लक्षण एक जैसे थे. शुरुआती जांच में पता चला कि इन सभी बच्चों ने खांसी और जुकाम के लिए एक ही ब्रांड की दवा 'कोल्ड्रिफ' (Coldrif) सिरप पी थी. यह सिरप तमिलनाडु स्थित श्रेसन फार्मा द्वारा निर्मित थी और इसकी सप्लाई जबलपुर के कटारिया फार्मास्यूटिकल्स के माध्यम से महाकौशल क्षेत्र में हो रही थी. जब जांच आगे बढ़ी, तो सिरप में डाइथाइलीन ग्लाइकॉल (Diethylene Glycol - DEG) नामक अत्यंत जहरीला औद्योगिक रसायन पाया गया, जो एंटीफ्रीज एजेंट के रूप में प्रयोग होता है और इसका सेवन किडनी फेलियर का कारण बनता है. इसी जहरीले तत्व ने बच्चों की जान ली.  

इस घटना के प्रारंभिक चरण में ही प्रशासन को निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए थे:

  1. थोक और खुदरा विक्रेताओं को तुरंत सूचना देना और स्टॉक जब्त करना.

  2. संपूर्ण बैच के नमूने लेकर विषैले तत्व की जांच कराना.

  3. जनसंख्या और स्वास्थ्य अधिकारियों के बीच समन्वय स्थापित करना.

  4. मीडिया और जनता को चेतावनी जारी करना.

लेकिन इन प्राथमिक कदमों में देरी ने बच्चों की जान लेने वाले सिरप को बाजार में बने रहने दिया. यह देरी केवल प्रशासनिक सुस्ती नहीं, बल्कि गंभीर गैर इरादतन हत्या के दायरे में आने योग्य लापरवाही थी.तत्कालीन कलेक्टर शीलेंद्र सिंह के बयान ने इस पूरे प्रकरण में और सवाल खड़े कर दिए. उन्होंने मीडिया में कहा कि उन्हें इस दौरान 150 से अधिक फोन कॉल्स आए थे, जिसमें कहा गया कि सिरप “अच्छी गुणवत्ता का है, इसे बैन न करें. जांच रिपोर्ट भी नहीं है. ऐसा करना उल्टा पड़ सकता है.” इसके बावजूद उन्होंने आखिरकार सिरप को बैन कर दिया.

 तत्कालीन कलेक्टर शीलेंद्र सिंह के बयान यह स्पष्ट हुआ कि इस कई विरोधाभास हैं. कॉल्स का वास्तविक लॉग उपलब्ध नहीं है, कॉल्स की सामग्री और समय स्पष्ट नहीं. कलेक्टर ने कहा कि उन्होंने दबाव के बावजूद निर्णय नहीं बदला, लेकिन साथ ही वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी जानकारी दी. इस तथ्य ने प्रशासनिक सक्रियता और मीडिया में दिए गए बयान के बीच विरोधाभास को उजागर किया.

सूत्रों के मुताबिक, छिंदवाड़ा में सातवीं मौत होने के बाद स्वास्थ्य विभाग और स्थानीय प्रशासन को पहली बार इसकी जानकारी मिली थी.आरोपों के अनुसार, प्रशासन ने इस प्रारंभिक चेतावनी को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया. इसी लापरवाही का नतीजा यह हुआ कि शुरुआती सात मौतों के बाद भी सिरप की बिक्री जारी रही और मरने वाले बच्चों की संख्या बढ़कर 23 के पार चली गई.  

स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों और परिवारों की प्रतिक्रियाएँ इस त्रासदी की गंभीरता को और बढ़ाती हैं. कई माता-पिता ने बताया कि उनके बच्चों को सामान्य खांसी-जुकाम की दवा दी गई थी, और कुछ ही घंटों में उनकी जान चली गई. यह घटना केवल दवा की गलती नहीं, बल्कि व्यापक स्वास्थ्य प्रणाली की संवेदनशीलता और प्रशासनिक जवाबदेही की कमी का परिणाम है.

विशेषज्ञों का कहना है कि यदि प्रारंभिक चेतावनी के तुरंत बाद दवा की बिक्री पर रोक लगाई गई होती और नमूने जांच के लिए भेजे गए होते, तो दर्जनों मौतों को रोका जा सकता था. 29 सितंबर को सिरप बैन करने का निर्णय कलेक्टर ने लिया, लेकिन पहले आए 150 कॉल्स ने यह संकेत दिया कि विभिन्न दबाव और राय निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते थे.

गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार  कलेक्टर का ध्यान उस समय  भूमि विवादों और अन्य विभागीय मामलों पर अधिक था, जबकि स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन जैसी प्राथमिक जिम्मेदारियाँ पीछे छूट गईं. यही असंतुलन बच्चों की मौतों की मुख्य वजह बना. तत्कालीन कलेक्टर शैलेंद्र सिंह की भूमिका पर सबसे तीखे सवाल उठ रहे हैं. स्थानीय  सूत्रों का दावा है कि जब यह गंभीर स्वास्थ्य संकट सामने आया, तब कलेक्टर सिंह का मुख्य ध्यान मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता की धारा 165 से संबंधित मामलों के त्वरित निपटान पर था. यह धारा भूमि के हस्तांतरण, स्वामित्व और विभिन्न भू-विवादों से जुड़ी हुई है, जो कि निश्चित रूप से प्रशासनिक कार्य का हिस्सा है, लेकिन एक बड़े स्वास्थ्य संकट और बच्चों की लगातार हो रही मौतों के सामने यह प्राथमिकता नहीं हो सकती थी. आरोप है कि कलेक्टर ने स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा दी गई चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया और जरूरी समन्वय बनाकर ड्रग इंस्पेक्टरों या स्वास्थ्य टीमों को सक्रिय करने में विफल रहे. उनका सारा प्रशासनिक फोकस राजस्व लक्ष्य हासिल करने और भूमि विवादों को सुलझाने पर बना रहा. सूत्रों का दावा है कि पुष्टि के लिए  घटनाक्रम के दौरान सितम्बर-अक्टूबर के राजस्व सम्बन्धी  फाईलों  के निपटारे के आंकड़ों को जांच का विषय में शामिल करने से मामला के तह तक पहुंचा जा सकता है.   

कानूनी और न्यायिक दृष्टिकोण से यह मामला अत्यंत संवेदनशील है. मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय इस मामले में स्वतः संज्ञान ले सकता है . राज्य सरकार के जांच में कलेक्टर के 150 कॉल वाले बयान, प्रशासनिक देरी, स्वास्थ्य अधिकारियों की रिपोर्ट और स्थानीय दवा विक्रेताओं के रिकॉर्ड का गहन विश्लेषण होना चाहिए.विशेषज्ञों और जनहित संगठनों का मानना है कि इस मामले में केवल दवा निर्माता की गलती नहीं है. स्थानीय प्रशासन की संवेदनशीलता और जवाबदेही की कमी ने निर्दोष बच्चों की जानें लीं. SIT और उच्च न्यायालय दोनों के संज्ञान में आने से, यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि:

  1. प्रशासनिक लापरवाही की जिम्मेदारी तय हो.

  2. भविष्य में ऐसे स्वास्थ्य संकट को रोकने के लिए त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित हो.

  3. पीड़ित परिवारों को न्याय मिले और पुनरावृत्ति रोकी जा सके.

 

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